गीत
सबने पूजा बड़े पहाड़ों,
और खंडित पाषाण को
मेरी कलम आज भी पूजे
केवल एक इन्सान को..........।।
भूखे पेट सहा करता जो
कड़ी दोपहरी जेठ की
और फटी धोती में सहता
शीतलहर हिम पाता भी
टपटप टपके जिसकी छपरी
थोड़ी सी बरसात में
आज समर्पित मेरा सब कुछ
एक ऍसे भगवान को..........।।
जिसके एक हाथ में हल है
फिर भी प्रश्न बना है जीवन
जिसका खेत फला—फूला है
फिर भी कुटिया तो है निर्धन
जिसके छूने भर से केवल
माटी सोना हो जाती है
श्रम की बूँद—बूँद पारस है
भले लिखा हो गान को..........।।
जिसकी साँस साँस में सरगम
पग में धूल सनी है
उन्हीं पगों से मेरी धरती
दुल्हन आज बनी है
सूरज के पहले ही जिसने
छोड़ा रैन बसेरा रे
मैंने मंदिर में पूजा है
आज उसी इंसान को..........।।
***
- तेजेश्वर मिश्र
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