08 May, 2005

क्षणिकाएँ

  • प्रश्न और उत्तर
प्रश्न तो बहुत से
जिया करती है ज़िन्दगी
कभी–कभी प्रश्न भी
लाचार हो जाते हैं
उत्तर के आगे
सर झुकाते हैं
फिर भी प्रश्नों का
सिलसिला जारी है
जबकि उत्तर की
अपनी सीमाएँ हैं
लाचारी है ।।
****
  • गुलाब

कल्पना के विपरीत
जब वास्तविकता
दिखलाई देती है
समय के हस्ताक्षर
अस्पष्ट हो जाते हैं
सूखे मुरझाये
एवं चारों ओर से
फटी हुई धरती पर
काँटों के बीच
कहीं गुलाब भटक जाते हैं ।
***



:: तेजेश्वर मिश्र ::

1 Comments:

At 8:44 AM, Anonymous Anonymous said...

आपकी कविताएँ गहरे चिंतन से निःसृत कविताएँ हैं। आपके मुक्तक बहुत लाजबाव हैं। आगे भी नेट पर कविताएँ देते रहें तो बहुत अच्छा लगेगा।
–डॉ॰ दिनेश पाठक शशि, मथुरा

 

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