08 May, 2005

दो कविताएँ

  • तुम्हारा नेह
जैसे फैला आसमां
असीम
लगता कहीं दूर
धरती के एक किनारे
मिलता हुआ सा
लेकिन क्या कभी
नीला—आकाश
और हरी–भरी धरती
मिली है?
जब जब इस बिंदु पर
पहुँचना चाहा है
पथ बढ़ता गया है
मील दर मील
नापते पग
रूकने लगे
लेकिन धरती से
आसमां
जिस बिंदु पर
मिलता दिखा था
ठीक वैसा ही था
ना थोड़ी दूर
और न थोड़ा पास।।
***


  • शबनम
भोर की पहली किरण
मुस्कान लेकर प्रातः से
आ पड़ी निस्पंद जग में
दूर करने तम घनेरा
दूर तक फैला अंधेरा
विवशता में बँध गया
रो पड़ी तब चाँदनी
वह अश्रु शवनम बन गया।।
***

-तेजेश्वर मिश्र


0 Comments:

Post a Comment

<< Home